मासुम कली
दुनिया की अब तो रोशनी दिख चली थी
माँ के पेट में ही दिन रात ढली थी
फिर मुझे क्यों मार दिया गया माँ
माँ मैं तो एक मासुम कली थी
हर एहसास में तो मैं भी तेरे साथ थी
तुम्हारे सांसो से ही मेरी साँस थी
क्या ये सच्चे प्यार की सुरुआत नहीं थी
फिर मुझे क्यों मार दिया गया माँ
माँ मैं तो एक मासुम कली थी
मेरे बिना नहीं तो कटी न थी कोई भी पल
पर तुम्हे भी ना सुनाई दी मेरे जिस्म की हलचल
पता नहीं वह क्या था तडप रही उससे मैं पल-पल
पापा को देखने की आस लगाये रोनें लगी थी
फिर मुझे क्यों मार दिया गया माँ
माँ मैं तो एक मासुम कली थी
तडपती रही जूझती रही पर दिल में ही मची खलबली थी
सांसे लेना दूभर हो गया था ऐसी भी क्या किसने क्या चाल चली थी
आखिकार हार गयी जिस्म से मेरें प्राण निकल चली थी
दुनिया वालों का बेटिओं से ऐसी क्या दुश्मनी रही थी
मुझे क्यों मार दिया गया माँ , माँ मैं तो एक मासुम कली थी
मुझे माफ़ करदे माँ तेरा कर्ज उधार रहा मुझपे
मैं नहीं कोई भी दोष दे रही हूँ तुझपे
तेरे सांसे तेरे एहसान का मौका मिला तो जरुर चुकाऊँगी
भगवान से जाकें लडकें देना ऐसा प्रार्थना ही जाने के बाद बोल आई हूँ
दिल पर ना अपने कोई बोझ रखना यही बताने आई थी
मारा क्यों जाता बेटी को यही जानने वापस आई थी
.......................................यही जानने आई थी
.............................यही जानने आई थी ..........................................
......वरुण कुमार साह ......
behtareen.. kya khub likhte ho
जवाब देंहटाएंसही में लाजबाब कविता है दोस्त,इस ब्लॉग का अपडेट नही लगाया था इसी लिए पहुच नही पाया।
जवाब देंहटाएंbahut achchhi kabita hai dost yu hi likhte raho
जवाब देंहटाएं